संजय साेलंकी का ब्लाग

शिष्य और साइकिल






एक ज़ेन गुरु ने देखा कि उसके पाँच शिष्य बाज़ार से अपनी-अपनी साइकिलों पर लौट रहे हैं। जब वे साइकिलों से उतर गए तब गुरु ने उनसे पूछा – “तुम सब साइकिलें क्यों चलाते हो?”

पहले शिष्य ने उत्तर दिया – “मेरी साइकिल पर आलुओं का बोरा बंधा है। इससे मुझे उसे अपनी पीठ पर नहीं ढोना पड़ता”।

गुरु ने उससे कहा – “तुम बहुत होशियार हो। जब तुम बूढे हो जाओगे तो तुम्हें मेरी तरह झुक कर नहीं चलना पड़ेगा”।

दूसरे शिष्य ने उत्तर दिया – “मुझे साइकिल चलाते समय पेड़ों और खेतों को देखना अच्छा लगता है”।

गुरु ने उससे कहा – “तुम हमेशा अपनी आँखें खुली रखते हो और दुनिया को देखते हो”।

तीसरे शिष्य ने कहा – “जब मैं साइकिल चलाता हूँ तब मंत्रों का जप करता रहता हूँ”।

गुरु ने उसकी प्रशंसा की – “तुम्हारा मन किसी नए कसे हुए पहिये की तरह रमा रहेगा”।

चौथे शिष्य ने उत्तर दिया – “साइकिल चलाने पर मैं सभी जीवों से एकात्मकता अनुभव करता हूँ”।

गुरु ने प्रसन्न होकर कहा – “तुम अहिंसा के स्वर्णिम पथ पर अग्रसर हो”।

पाँचवे शिष्य ने उत्तर दिया – “मैं साइकिल चलाने के लिए साइकिल चलाता हूँ”।

गुरु उठकर पाँचवे शिष्य के चरणों के पास बैठ गए और बोले – “मैं आपका शिष्य हूँ”।
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