एक नवयुवक ने अत्यंत मेहनत करके तीरंदाजी सीखी.. और उसके बाद बहुत सी तीरंदाजी प्रतियोगिताएँ भी जीत ली।
फिर उसने अपने आसपास के तीरंदाजों को हराया, और खुद को विश्व का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर मानने लगा।
अब वह जहाँ भी जाता लोगों को उससे मुकाबला करने की चुनौती देता, और उन्हें हरा कर उनका मज़ाक उड़ाता।
एक बार किसी ने उससे कहा कि विश्व के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर तो एक जेन गुरु है, जो दूर कहीं ऊंचे दुर्गम पहाड़ पर रहते है।
नवयुवक ने उन्हें चुनौती देने का फैसला किया, और कई दिनों की यात्रा ने बाद वह सुबह -सुबह पहाड़ों के बीच स्थित उनके मठ जा पहुंचा।
वहाँ पहुँचकर उसने शीघ्रता से कहा...
मास्टर मैं आपको तीरंदाजी मुकाबले के लिए चुनौती देता हूँ!
मास्टर मुस्कुराये और उन्होंने नवयुवक की चुनौती स्वीकार कर ली..!
मुक़ाबला शुरू हुआ।
नवयुवक ने अपने पहले प्रयास में ही दूर रखे लक्ष्य के ठीक बीचो -बीच निशाना लगा दिया।
और अगले निशाने में उसने लक्ष्य पर लगे अपने पहले तीर को ही भेद डाला।
अपनी योग्यता पर घमंड करते हुए नवयुवक बोला, कहिये मास्टर, क्या आप इससे बेहतर करके दिखा सकते हैं? यदि हाँ..तो कर के दिखाइए... और यदि नहीं, तो हार मान लीजिये!
मास्टर बोले.. पुत्र, मेरे पीछे आओ!
मास्टर चलते-चलते एक खतरनाक खाई के पास पहुँच गए।
नवयुवक यह सब देख कुछ घबराया और बोला, मास्टर, ये आप मुझे कहाँ लेकर जा रहे हैं?
मास्टर बोले, घबराओ मत पुत्र, हम लगभग पहुँच ही गए हैं... उस ऊंची खाई के आखिरी छोर पर एक पत्थर लटक रहा था।
मास्टर शीघ्रतापूर्वक उस पत्थर पर पहुंचे, कमान से तीर निकाला और दूर एक पेड़ के फल पर सटीक निशाना लगाया।
निशाना लगाने के बाद मास्टर बोले.. आओ पुत्र, अब तुम भी उसी पेड़ पर निशाना लगा कर अपनी दक्षता सिद्ध करो!
नवयुवक डरते -डरते आगे बढ़ा और बेहद कठिनाई के साथ उस लटकते पत्थर पर जो कभी भी गहरी खाई में गिर सकता था, उस पर चढ़ा...
....और किसी तरह कमान से तीर निकाल कर निशाना लगाया पर निशाना लक्ष्य के आस -पास भी नहीं लगा।
नवयुवक निराश हो गया और अपनी हार स्वीकार कर ली।
तब मास्टर बोले.. पुत्र, तुमने तीर -धनुष पर तो नियंत्रण हांसिल कर लिया है पर तुम्हारा उस मन पर अभी भी नियंत्रण नहीं है जो किसी भी परिस्थिति में लक्ष्य को भेदने के लिए आवश्यक है।
पुत्र, इस बात को हमेशा ध्यान में रखो कि जब तक मनुष्य के अंदर सीखने की जिज्ञासा है तब तक उसके ज्ञान में वृद्धि होती है लेकिन जब उसके अंदर सर्वश्रेष्ठ होने का अहंकार आ जाता है तभी से उसका पतन प्रारम्भ हो जाता है।
नवयुवक मास्टर की बात समझ चुका था, उसे एहसास हो गया कि उसका धनुर्विद्या का ज्ञान बस अनुकूल परिस्थितियों में कारगर है और उसे अभी बहुत कुछ सीखना बाकी है; उसने मास्टर से क्षमा मांगी और सदा एक शिष्य की तरह सीखने और अपने ज्ञान पर घमंड ना करने की सौगंध ली।
कहते है, उस पहाड़ से वापिस आने के बाद... किसी ने उसे कभी, कभी भी धनुष-बाण को हाथ लगाते नहीं देखा...
और फिर वह दुनिया का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर कहलाया..!!