अगर कल
दिन बुरा था
तो रुकिये
गहरी सांस लीजिये
और उम्मीद रखिये
की आज दिन
बहुत अच्छा होगा।
और अगर
कल का दिन
अच्छा ही था
तो रुकिये नहीं
हो सकता है कि
सफलता का सिलसिला
अभी बस शुरू हुआ ही हो।
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- संजय © 2018
संजय साेलंकी का ब्लाग
अगर कल
दिन बुरा था
तो रुकिये
गहरी सांस लीजिये
और उम्मीद रखिये
की आज दिन
बहुत अच्छा होगा।
और अगर
कल का दिन
अच्छा ही था
तो रुकिये नहीं
हो सकता है कि
सफलता का सिलसिला
अभी बस शुरू हुआ ही हो।
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- संजय © 2018
मेरी नींद के अंदर भी एक नींद है। वह नींद जिसमें ढेरो किस्से पलते है और ख्वाब उन्हें पंखे झलते है। ख्वाब जिनमें जागने से पहले मैं कोई और होता हूँ और जागते ही उन यादों को मैं खो देता हूँ। घर का ठंडा फर्श और बाहर के बरसते बादल एहसास कराते है कि आज फिर कोई ख्वाब टूटा है। इस उम्मीद में कि वो ख्वाब फिर दोबारा आएगा, मैं फर्श पर पैर रखने से पहले, धीमे-धीमे ख्वाबों के किरचें उठाकर करीने से सजाता हूँ।
....और एक नई रात की उम्मीद में एक नए दिन की ओर कदम बढ़ाता हूँ।
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- संजय, 2018
खुद की तलाश में अक्सर खुद को पहले लिखना होता है। मैं बहुत दिनों के बाद लिखने बैठा हूँ। लग रहा है जैसे कुछ दिन पहले ही की तो बात है.. मैं या तो लिख रहा था या फिर लिखना चाह रहा था। देखो! अभी भी मैंने कुछ लाइने उकेरी थी, लेकिन अब मैं उन्हें मिटा रहा हूँ। क्योंकि मैं अब लिखता नहीं। अब मैं खोजता हूँ।
मैं खोजता हूँ एकाकी परछाइयों में, और कभी अपने मन की गहराइयों में.. फिर जब खोजते-खोजते मैं थक जाता हूँ, तो मैं खुद को खुद से दूर पाता हूँ। लगता है मेरी खुद की खुद से ही लड़ाई हो गई है। मेरे भीतर कहीं कोई फांस चुभ गई है, और मेरा गला सूखने लगा है। अब मैं गला तर करने के लिए चाय बनाता हूँ। चाय में उबलते बुलबुलों को देखकर मन में कई ख्वाब उबलते है। ख्वाब जिनमें मेरे कुछ दोस्त-यार और कुछ रिश्तेदार है.. जिनसे खूब बातें होती है, खूब हँसी-मज़ाक भी और बेवजह का रोना-गाना भी। लेकिन बातों ही बातों में इन सबके बीच से मैं गायब हो रहा हूँ। क्योंकि मुझे लड़ने जाना है।
अब मैं सुपर मारियो हूँ। और जीवन के युद्ध में मुझे लगातार लड़ते जाना है। वह जीवन, जिसमें कोई लाईफलाइन भी नहीं है.. मैं लड़ रहा हूँ, रास्तें में आ रही हर कठिनाई को, हर हार को पार करके.. मैं बस जीतना चाहता हूँ। क्योंकि इस खेल में मैं अकेला नहीं हूँ, इसमें एक रानी भी है, जिसे मुझे जीताना है। उसे जीताना है क्योंकि इस खेल में उसकी जीत ही मेरी जीत है।
और खेल तो अब भी खत्म नहीं हुआ, लेकिन मैं जान जाता हूँ.. यहाँ जीत-हार मायने नहीं रखता, मायने रखता है तो बार-बार इस जीत-हार के सफर पर जाना.. ठीक वैसे ही जैसे खुद की तलाश में खुद को पा लेना जरूरी नहीं, जितना जरूरी है खुद को तलाश करना।
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- संजय © 2018
एक सपना है, जिसे एक लड़का देखता है। लड़का जिसका सपना देखता है, वह एक चिड़िया है। लड़का अक्सर चिड़िया का ही सपना देखता है, क्योंकि किसी दिन वह भी उसकी तरह बंधे हुए आसमान में खुलकर उड़ना चाहता है।
और ये जो चिड़िया है, वो बस खुद में ही खोई रहती है। और मासूम तो वह इतनी है कि सपनों की दुनिया में बस कुछ देर उसका नाम भर लेते रहने से वह सपनों में आ जाया करती है। जब वह आती है, तब लड़का उससे बात करना चाहता है, लेकिन अपने ही सपनों की भीड़ में भी उसे अकेले बात करने के लिए प्राइवेसी नहीं मिलती। सच भी तो है, इस भीड़ भरी दुनिया में सुकून से बैठकर बात करने के लिए कोई जगह बची भी तो नहीं है।
अब प्राइवेसी की तलाश में लड़का छत पर आ जाता है। वह मोबाइल में कुछ टाइप कर रहा है, या फिर कोई खेल, खेल रहा है। मोबाईल में व्यस्तता के बीच अचानक उसे किसी की मौजूदगी का एहसास होता है, वह एक उड़ती निगाह से सामनें की ओर देखता है.. पता नहीं कब, कहा से, चुपके से वह चिड़िया वहां आ गई है, और उसके सामने आकर बैठ गई है। अब लड़का चिड़िया से बात करना चाहता है, लेकिन वह कुछ बोल ही नहीं पाता, फिर उसे याद आता है.. उसे तो चिड़ियों की बोली बोलना आता ही नहीं.. और इस तरह से उनकी बात एक बार फिर अधूरी रह जाती है।
वाकई, बात शुरू होने से पहले कितनी मुश्किल होती है।
खैर कहानी आगे बढ़ती है। अब चिड़िया अक्सर उस घर की छत पर आ जाया करती है। रोज़-रोज़ की मुलाकातों की वजह से अब लड़के की माँ को भी चिड़िया पसंद आ गई है। और शायद चिड़िया भी माँ को पसंद करने लगी है। हाँ, वाकई ऐसा लगता है क्योंकि माँ जब भी छत पर कोई काम करने आती है, चिड़िया भी वहाँ आकर उन्हें टुकुर-टुकुर ताकती रहती है.. और उसे देखकर ऐसा लगता है जैसे वह घर के कामों में माँ का हाथ बराबरी से बटा रही हो।
अब घर के काम भी हो रहे है और घर में इतना कुछ घट भी रहा है, लेकिन लड़का अब भी अपने मोबाइल में ही उलझा हुआ है। उसे अपने आसपास से बेखबर रहने की आदत सी हो गई है। खैर आदत तो अब चिड़िया को भी इस घर की लग गई है, क्योंकि अब वह भी सीढ़ियों से चढ़ते-उतरते समय आखिरी दो-तीन सीढ़िया उड़कर नहीं, फुदक कर चढ़ती है। मानो चिड़िया कोई चिड़िया नहीं.. एक लड़की हो।
लड़की, जो घर की छत पर या तो कपड़े सुखाने आती है या कभी कोई और काम करने.. और सारा दिन इन सब कामों के बीच में वह बस थोड़ा-सा ही आराम कर पाती है। कभी-कभी तो वह आराम करते हुए ही दौड़ लगा देती है। और कभी दौड़ते-दौड़ते ही उड़ जाती है। उड़ जाती है, जैसे आसमान छूने की तलाश में बादलों की सवारी करना चाहती हो.. ठीक वैसे उड़ जाती है, जैसे बेवक़्त आगे होकर दुनिया को जीत लेना चाहती हो।
लेकिन चिड़िया की उन्मुक्त उड़ान से लड़का परेशान हो जाता है। उसने चिड़िया की तरह उड़ने की चाह में अब जमीन पर चलना भी बंद कर दिया है। अब उसे सारी चिड़ियाओं की उड़ान से ही तकलीफ हो गई है.. इसलिए वह खुद उड़ने की बजाये अब अपनी ही चिड़िया के पर कतर देना चाहता है।
और जैसा कि इस दुनिया में हमेशा से होता आया है.. बरसो धूप तक में जलने और ठंड में ठिठुरते रहने के बाद एक दिन अनमना लड़का उस चिड़िया के पंख चुराकर उड़ जाता है।
चिड़िया गायब हो जाती है.. और सपना खत्म हो जाता है।
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- संजय © 2018
जुलाई की किसी सुबह जब घर से बाहर देखता हूँ तो मेरी निगाहें उस ओर जाती है, जहाँ खिड़की है। क्योंकि वहाँ नज़र आती है बारिश की कुछ बूँदें.. चुपचाप खिड़की के बाहर गिरती हुई और बाहर नज़र आती है धरती, आसमान से मिलती हुई।
और बारिश की रिमझिम बूंदें खूबसूरती से भरी एक परिपूर्ण दुनियाँ बना लेती है। तब खिड़की इस खूबसूरत तस्वीर को लिखने के लिए मुझे बुलाती है, और मैं एक खाली कैनवास लेकर खिड़की के किनारे बैठ जाता हूँ।
फिर मैं लिखता हूँ खिड़की.. खिड़की, जिससे हम दुनियाँ को देखते है। वह खिड़की, जो कभी लोगों को आँकती नहीं। उसे फर्क नहीं पड़ता कि उसके पार कोई छोटा बच्चा झाँक रहा है या कोई बड़ा। बाहरी दुनियां चाहे घटती-बढ़ती रहे, यह खिड़की कभी छोटी-बड़ी नहीं होती। यह कभी तो थोड़े में बहुत कुछ देख लेती है, और कभी तो बहुत कुछ देखकर भी अपनी आंखें बंद कर लेती है।
किसी घर का सबसे सुकून भरा कोना उसकी खिड़की होती है। जब कभी अकेलेपन का एहसास हो तो खिड़की किनारे बैठकर आप चाँद को देख सकते है। और किसी को कब और कितना याद किया, उसका हिसाब किया करते हैं। और जब ज्यादा ही दुःखी हो गए तो यहाँ बैठकर रो लेते है और अगर खुश होना हो, तो यहाँ बैठकर ही सपनों की दुनियाँ में चले जातें है।
सपनों की दुनियां में अक्सर मैं खिड़की का सपना देखता हूँ। और सपना मेरे बचपन का होता है। जिसमें होता है एक राजा और होती है एक रानी.. या कभी होती है कोई और कहानी। कहानी किसी चिड़िया की, जो छत पर नहा रही है या कभी दाना चुगने कहीं जा रही है। चिड़िया दाना चुगकर उड़ जाती है एक खुले आसमान की ओर.. वह आसमान जिसमें हम भी खुलकर उड़ना चाहते है।
लेकिन इस दुनियां में हम उतना ही उड़ सकते है, जितना हमनें अपने घर की खिड़की में से उड़ना सीखा है।
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- संजय, © 2018
ज़िंदगी में हर कोई कुछ ना कुछ बनना चाहता है। कुछ बनने वाले सपना देखते है, और कुछ ना बनने वाले भी। कुछ सपने वर्तमान के होते है और कुछ भविष्य के। लेकिन सबसे बुरे होते है, भूतकाल के सपने.. बीते हुए कल के सपने, जो वाकई किसी भूत की तरह ही डराते है। लेकिन मुझे पसंद है वो सपना जो अतीत की यादों से शुरू हुआ हो और ज़िंदगी के अंत तक जाता हो।
मुझे सपने के अंदर, अपने सपने को देखना और उसके इर्दगिर्द अपनी जिंदगी जीना पसंद है।
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- संजय, 2018
कहते है पतंग का इतिहास कई साल पुराना है। लेकिन मेरा तो पतंग संग बचपन से ही याराना है। पतंग, जो हमें ख्वाब दिखाती है। ख्वाब होते है ज़िंदगी में ऊँचाइयां पाने के। ज़िंदगी में ऊँचाइयां सबकी ख्वाहिश होती है। और ख्वाहिशें अक्सर खानाबदोश होती है। वैसे कभी-कभी खानाबदोश होना अच्छा होता है। क्योंकि खानाबदोशी में चीज़ों को पकड़ कर नहीं रखा जाता, उन्हें आजाद छोड़ा जाता है। और आजादी तो हर पतंग का हक़ है। हक़ जो एक महीन धागे से बंधा होता है और हर उड़ाने वाले के हिसाब से बदलता रहता है।
हिसाब, जिसमें खींचोगे तो पतंग दौड़ी आएगी, लेकिन ढील दोगे तभी वह ऊपर जाएगी।
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- संजय, © 2018
क्या ये अंत है? नहीं, ये अंत नहीं है। ये तो एक सफर है.. एक अंतहीन सफर है। सफर है, घर के आंगन में रिमझिम बारिश में भीगने से लेकर पनघट से पानी भरकर लाने तक। ठंड में ठिठुरते हाथों के अलाव जलाने से लेकर, तेज़ धूप में किसी पेड़ की छाँव ढूंढने तक। तुम चलते ही रहना। लगातार.. हर चुनौती का सामना करते हुए। हाँ, जब कभी थकने लगो तो देखना सितारों से भरे इस आसमान को और याद करना इस सफर की शुरुआत को। और फिर से आगे बढ़ते जाना। जीवन के अंत तक आगे बढ़ते जाना।
क्योंकि उससे आगे ही तुम्हें वो नायाब तोहफा मिलेगा जिसकी तलाश में लोग सफर किया करते है। वहाँ तुम्हें अंतहीन सुकून मिलेगा.. और इस कहानी का अंत भी।
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- संजय, © 2018
एक कहानी है जिसे वह लिखता है। क्योंकि उसे पढ़ने का शौक रहा है और अपने शौक वह पूरे शगल से पूरे करता है। इसलिए अक्सर पढ़ता है। और पढ़ते-पढ़ते कुछ गढ़ता है। जो गढ़ता है वो एक सपना है।
खुली आँखों से देखा गया सपना। जो बंद आखों में भी नज़र आता है। जिसमें नज़र आती है दो आँखें, जो दुनिया की सबसे खूबसूरत आँखें है। शायद इन आँखों की कुछ बातें थी। जो वो नहीं बताता है।
वह बातें तो नहीं बताता है। फिर भी अक्सर छुप-छुपकर उन्हीं बातों को तरतीब से जमाता है। और बातें, वो तो इतनी शैतान हैं या कुछ-कुछ नादान है, जो हर बार बेतरतीब हो जाती है।
बातें, बेतरतीब हो जाती है। ठीक वैसे ही, जैसे वह अपनी प्रेमिका के खूबसूरत लंबे बालों को जब कान के पीछे सजाता है, और वो उतनी ही बार बिखर जातें है।
बिखर जाते है। जैसे बिखरता हैं सपनों का महल। जब दिल बस में ना हो तो सपनों के महल ताश के पत्तों से बनायें जातें है। जिन्हें भावनाएं कुछ ज्यादा ही मज़बूत बना देती हैं।
उस महल के पीछे वह, उसका इंतजार करता है। अचानक कोई आहट सुनाई देती है। और उसकी बैचैनी बढ़ जाती हैं। उस बैचेनी में उसे, वह आवाज़ सुनाई देती है। जिसका इंतजार वो कई जन्मों से कर रहा था।
तभी अचानक उसका महल बिखरने लगता हैं। उसे दर्द होता है, फिर भी वह उस टूटते महल को सम्हालने की कोशिश करता है। फिर भी उसकी प्रेमिका को आने में देर हो जाती है। आखिर बीती बातों की तरह उसके सपनों का महल ढह जाता है। और इस कहानी का अंत हो जाता है।
शगल : Hobby
गढ़ना : Manufacture
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- संजय, © 2018