संजय साेलंकी का ब्लाग

तलाश

खुद की तलाश में अक्सर खुद को पहले लिखना होता है। मैं बहुत दिनों के बाद लिखने बैठा हूँ। लग रहा है जैसे कुछ दिन पहले ही की तो बात है.. मैं या तो लिख रहा था या फिर लिखना चाह रहा था। देखो! अभी भी मैंने कुछ लाइने उकेरी थी, लेकिन अब मैं उन्हें मिटा रहा हूँ। क्योंकि मैं अब लिखता नहीं। अब मैं खोजता हूँ।

मैं खोजता हूँ एकाकी परछाइयों में, और कभी अपने मन की गहराइयों में.. फिर जब खोजते-खोजते मैं थक जाता हूँ, तो मैं खुद को खुद से दूर पाता हूँ। लगता है मेरी खुद की खुद से ही लड़ाई हो गई है। मेरे भीतर कहीं कोई फांस चुभ गई है, और मेरा गला सूखने लगा है। अब मैं गला तर करने के लिए चाय बनाता हूँ। चाय में उबलते बुलबुलों को देखकर मन में कई ख्वाब उबलते है। ख्वाब जिनमें मेरे कुछ दोस्त-यार और कुछ रिश्तेदार है.. जिनसे खूब बातें होती है, खूब हँसी-मज़ाक भी और बेवजह का रोना-गाना भी। लेकिन बातों ही बातों में इन सबके बीच से मैं गायब हो रहा हूँ। क्योंकि मुझे लड़ने जाना है।

अब मैं सुपर मारियो हूँ। और जीवन के युद्ध में मुझे लगातार लड़ते जाना है। वह जीवन, जिसमें कोई लाईफलाइन भी नहीं है.. मैं लड़ रहा हूँ, रास्तें में आ रही हर कठिनाई को, हर हार को पार करके.. मैं बस जीतना चाहता हूँ। क्योंकि इस खेल में मैं अकेला नहीं हूँ, इसमें एक रानी भी है, जिसे मुझे जीताना है। उसे जीताना है क्योंकि इस खेल में उसकी जीत ही मेरी जीत है।

और खेल तो अब भी खत्म नहीं हुआ, लेकिन मैं जान जाता हूँ.. यहाँ जीत-हार मायने नहीं रखता, मायने रखता है तो बार-बार इस जीत-हार के सफर पर जाना.. ठीक वैसे ही जैसे खुद की तलाश में खुद को पा लेना जरूरी नहीं, जितना जरूरी है खुद को तलाश करना।

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- संजय © 2018

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