जुलाई की किसी सुबह जब घर से बाहर देखता हूँ तो मेरी निगाहें उस ओर जाती है, जहाँ खिड़की है। क्योंकि वहाँ नज़र आती है बारिश की कुछ बूँदें.. चुपचाप खिड़की के बाहर गिरती हुई और बाहर नज़र आती है धरती, आसमान से मिलती हुई।
और बारिश की रिमझिम बूंदें खूबसूरती से भरी एक परिपूर्ण दुनियाँ बना लेती है। तब खिड़की इस खूबसूरत तस्वीर को लिखने के लिए मुझे बुलाती है, और मैं एक खाली कैनवास लेकर खिड़की के किनारे बैठ जाता हूँ।
फिर मैं लिखता हूँ खिड़की.. खिड़की, जिससे हम दुनियाँ को देखते है। वह खिड़की, जो कभी लोगों को आँकती नहीं। उसे फर्क नहीं पड़ता कि उसके पार कोई छोटा बच्चा झाँक रहा है या कोई बड़ा। बाहरी दुनियां चाहे घटती-बढ़ती रहे, यह खिड़की कभी छोटी-बड़ी नहीं होती। यह कभी तो थोड़े में बहुत कुछ देख लेती है, और कभी तो बहुत कुछ देखकर भी अपनी आंखें बंद कर लेती है।
किसी घर का सबसे सुकून भरा कोना उसकी खिड़की होती है। जब कभी अकेलेपन का एहसास हो तो खिड़की किनारे बैठकर आप चाँद को देख सकते है। और किसी को कब और कितना याद किया, उसका हिसाब किया करते हैं। और जब ज्यादा ही दुःखी हो गए तो यहाँ बैठकर रो लेते है और अगर खुश होना हो, तो यहाँ बैठकर ही सपनों की दुनियाँ में चले जातें है।
सपनों की दुनियां में अक्सर मैं खिड़की का सपना देखता हूँ। और सपना मेरे बचपन का होता है। जिसमें होता है एक राजा और होती है एक रानी.. या कभी होती है कोई और कहानी। कहानी किसी चिड़िया की, जो छत पर नहा रही है या कभी दाना चुगने कहीं जा रही है। चिड़िया दाना चुगकर उड़ जाती है एक खुले आसमान की ओर.. वह आसमान जिसमें हम भी खुलकर उड़ना चाहते है।
लेकिन इस दुनियां में हम उतना ही उड़ सकते है, जितना हमनें अपने घर की खिड़की में से उड़ना सीखा है।
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- संजय, © 2018
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