संजय साेलंकी का ब्लाग

एक सच्ची कहानी






क्या कभी किसी झाड़ू लगाने वाली बाई का भी विदाई सहारोह होता है क्या?
दिल को छू जाने वाली, एक सच्ची कहानी!

सुमित्रा देवी जी रजरप्पा, झारखण्ड में तीस साल तक सड़कें साफ़ करने का काम करती थीं। एकदम शांत स्वाभाव से वह चुप-चाप अपना काम करती चली गयीं और एक दिन उनके रिटायरमेंट का समय भी आ गया। मोहल्ले के लोगों ने सोचा की तीस सालों के इस जान पहचान को एक अच्छा मोड़ देना चाहिए।

वैसे तो वह एक गरीब-दलित फोर्थ-ग्रेड की सरकारी कर्मचारी थी। लेकिन फिर भी सब ने मिलकर एक छोटा सा कार्यक्रम आयोजित किया जिसमे सुमित्रा जी के साथ काम करने वाले और लोगो को भी बुलाया।

अभी हँसी-मज़ाक, बात-चीत चल ही रही थी की अचानक वहाँ एक के बाद एक तीन गाड़ियां रुकीं जिनमे से एक गाड़ी नीली बत्ती वाली भी थी। सब लोग एक दुसरे की और देखने लगे की यह सब क्या हो रहा है?!

लेकिन तभी सुमित्रा जी की आँखों से तो आँसू की धार निकल पड़ी थी। तीनो गाड़ियों से उतरे हुए वह तीन नौजवान युवकों ने सुमित्रा जी की पैर छुए और उन्हें गले लगा लिया! उस समय वहाँ मौजूद लोगों को पता चला की यह तीन तो उनके अपने बेटे ही हैं!

जब आँसू थमे तो सुमित्रा जी बोलीं- "साहब, मैंने तीस सालों से यह सड़के साफ़ की हैं और मुझे अब कोई शिकायत भी नहीं है। आज मेरे बच्चे भी आप लोगों जैसे 'साहब' बन गए"!

उन्होंने अपने तीनों बेटों का वहां मौजूद अपने अधिकारियों से परिचय कराया तो सभी लोग सकते में आ गए। फिर सुमित्रा देवी बोलीं, "साहब, मैं तो पूरी जिंदगी झाड़ू लगाती रही, लेकिन मैंने अपने तीनों बेटों को साहब बना दिया।

यह मेरा बड़ा बेटा वीरेंद्र कुमार है जो रेलवे में इंजीनियर है, यह दूसरा बेटा धीरेन्द्र कुमार डॉक्टर है और यह मिलिये मेरे छोटे बेटे से, जो सिवान जिले का डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर है।

सीवान के कलक्टर महेन्द्र कुमार ने बड़े ही भावुक अंदाज में कहा, "कभी भी विपरीत हालात से हार नहीं मानना चाहिए। सोचिए मेरी माँ ने झाड़ू लगा-लगाकर हम तीनों भाइयों को पढ़ाकर आज इस मुकाम तक पहुंचा दिया। चाहे जितने भी मुश्किलें आयीं माँ ने उनकी शिक्षा नहीं रुकने दी। चाहे एक दिन खाना भले ही कम खाया हो, लेकिन स्कूल की किताबें हमेशा पूरी थीं। हम सामाजिक-आर्थिक तौर पर बड़े कमजोर थे, लेकिन मेरी माँ का साहस और उनका निष्ठा ने हमें आज इस मुकाम पर पहुंचा दिया। हमारी प्रेरणा हमारी मां हैं।"

जब बेटे नौकरी करने लगे तो माँ को बहुत मनाया की अब तो सड़क पर झाड़ू का काम छोड़ दें पर सुमित्रा जी ने उन्हें समझाया की हम चाहे जितने भी बड़े हो जाएँ, अपनी जड़ें कभी नहीं भूलनी चाहियें। यह वही नौकरी थी जिसकी वजह से तीनो बेटों ने अपनी पढ़ाई पूरी की और रिटायरमेंट के दिन तक वो इस काम को नहीं छोड़ेंगी।
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