संजय साेलंकी का ब्लाग

शाम की चाय


शाम के वक़्त जब स्कूल से अपने घरों को लौट चुके बच्चों के अलावा सब कुछ शांत है। तभी घड़ी ने गिनकर छह घंटियाँ लगा दी है। शायद वह याद दिला रही है कि चाय का समय हो गया है। कहते है, जब भी चाय की बात हो तो चाय बना ही लेना चाहिए। इसलिए मैं चाय बनाने जाता हूँ। अब मैं अक्सर चंदन दास को सुनने लगा हूँ। वाकई ग़ज़लें शाम की चाय का नशा दुगुना कर देती है।

नशे में मदहोश मन चाय के उबाल के साथ कुछ ख़्याल ले आता है। और इन्हीं ख्यालों के बीच अचानक बारिश शुरू हो जाती है। आसमान में बारिश की बूंदों के बीच उन पंछियों की कतार नज़र आती है, जो अब घरों की ओर लौट रहे है। और उन्हें देखकर मैं सोचता हूँ कि सब कुछ वैसा ही रहेगा.. जैसा था! बस मेरा रूटीन बदल जायेगा। जिसमें शाम को जब लौटेंगे परिंदे, तो मैं भी लौट आऊँगा। और सुबह जब वो उड़ेंगे, तो उनके संग मैं भी उड़ जाऊँगा।

और इन्हीं ख्यालों से धुंध हटने तक तक चाय कुछ ठंडी हो जाती है। ठीक वैसी, जैसी मुझे पसंद है।
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एक सीधा-सादा इंसान! घोर पारिवारिक! घुमक्कड़! चाय प्रेमी! सिनेमाई नशेड़ी! माइक्रो-फिक्शन लेखक!

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